Wednesday, December 26, 2012

‘उगना’--डॉ लक्ष्मीकांत चौधरी ‘सजल’



बिहार के मिथिलांचल का एक गाँव है  बिस्फी
वर्तमान में यह गाँव मधुबनी जिला में है| इसी गाँव के थे विद्यापति| महाकवि विद्यापति दरभंगा राज के राजकवि थे| राजकवि का ओहदा मिला था कर्णप्रिय गीतों की वजह से| गीतों की लोकप्रियता की वजह से उन्हें कवि कोकिल  की उपाधि भी मिली थी| उनके श्रृंगार और भक्तिरस के गीत आज भी मिथिलांचल में घर-घर में गाए जाते हैं|शादी विवाह जैसे शुभ अवसरों से लेकर मंदिरों तक में उन्हीं के गीत गूँजते हैं|
    एक दिन की बात है, गोधुलि बेला थी| विद्यापति एक गीत की रचना में तल्लीन थे| रचना पूरी हुई तो उसे गाने लगे| गाते-गाते इतने तन्मय हो गए कि कि आँखें खुद-ब-खुद मुँद गईं| स्वर में ऐसा जादू था, मानो करुणा का सागर उमड़ पड़ा हो| वे गा रहे थे-
    कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ
       कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ|
          दुःखहिं जनम भेल, दुःख ही गमाओल
                सुख सपनेहुँ नहिं भेल हे भोलानाथ
                   कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ|...
गीत अभी खत्म भी नहीं हुआ था कि उन्हें लगा कि कोई उनके चरणों में बैठा है| आँखें खोलीं तो देखा एक किशोर है| उन्होंने उसे उठाते हुए पूछा-
क्या नाम है तुम्हारा?
जवाब में किशोर ने कहा-
जिस नाम से पुकार लीजिए
विद्यापति ने उसे नाम दिया  उगना
    उगना अब विद्यापति के साथ ही रहने लगा, उन्हीं के घर, घर परिवार के दूसरे सदस्यों की तरह ही|
एक दिन विद्यापति को राजदरबार जाना था| साथ में उगना भी था| जेठ का महीना था| धूप काफी तेज थी| दोनो पसीने से तरबतर थे| आबादी काफी पीछे छूट चुकी थी| विद्यापति को जोर की प्यास लगी लेकिन पानी का कहीं नामोनिशान नहीं था| उन्होंने उगना से कहा- प्यास से मेरा गला सूख रहा है| जल्दी कहीं से पानी लाओ, अन्यथा मेरी जान नहीं बचेगी|
उगना ने दूर-दूर तक नजरें दौड़ाईं| कहीं पानी नहीं दिखाई दे रहा था| उगना ने ध्यान से विद्यापति को देखा| ऐसा लग रहा था, मानो कुछ पल और पानी नहीं मिला तो उनकी जान चली जाएगी| उगना ने मन ही मन कुछ निश्चय किया| वह उस वटवृक्ष की आड़ में चला गया जिसकी छाँव में दोनो खड़े थे| पल भर बाद उगना लौटा तो उसके हाथ में पानी से लबालब लोटा था|
विद्यापति ने लोटा हाथों में ले लिया| लोटा को होठों से लगा ही रहे थे कि पानी की खुश्बू उनके नाक से टकराई| वे रुक गए| उन्होंने आश्चर्य से कहा  यह तो गंगाजल है| यह तुम कहाँ से लाए?
उगना जवाब देने में आनाकानी करने लगा| विद्यापति को कुछ शक हुआ| उन्होंने कहा  जब तक तुम अपनी असलियत नहीं बताओगे, मैं यह पानी नहीं पीऊँगा|
उगना फिर भी टालमटोल करता रहा| जब विद्यापति ने अपनी जिद नहीं छोड़ी तो उगना ने कहा-आप मेरी असलियत जानना चाहते हैं तो यह लीजिए|
इतना कहते ही उगना अपने वास्तविक रूप में आ गया| विद्यापति सिहर गए|सामने साक्षात् महादेव खड़े थे| विद्यापति उनके पैरों पर गिर पड़े| मुँह से निकला-महादेव, आप हमारे घर? महादेव मुस्कुराए| बोले- तुम्हारे गीत में ऐसा आकर्षण था कि मैं यहाँ खिंचा चला आया, तुम्हारे पास|
मेरे गीत तो प्रेम का पर्याय भर है- विद्यापति संकोच से उठते हुए बोले| भगवन्, एक वचन दीजिए कि अब आप मुझे छोड़कर कभी नहीं जाएँगे|
महादेव ने कुछ सोचा और कहा-ठीक है! मगर एक शर्त है कि यह रहस्य जिस दिन कोई तीसरा जान जाएगा, मैं वापस कैलाश पर्वत चला जाऊँगा|
उस दिन के बाद विद्यापति जब भी पूजा करते, उगना की उपस्थिति पूजाघर में होती|
कुछ दिन बीत गए| एक दिन विद्यापति को राजदरबार जाना था| सवेरे पूजा समाप्ति के बाद विद्यापति तैयार होकर दरबार के लिए बिना खाए ही निकलने लगे| जलपान इसलिए नहीं बन सका था कि जलावन नहीं था| कविपत्नी गुस्से में थीं| गुस्सा उगना पर था| इसलिए कि उन्होंने शाम को ही जलावन लाने के लिए उगना को कह रखा था| विद्यापति निकल ही रहे थे कि उगना जलावन लिए लौटा| गुस्से में काँपती कविपत्नी ने जलावन के गठ्ठर में से एक लकड़ी खींची और उगना की पीठ पर दे मारी| यह देख विद्यापति हड़बड़ाकर बोल पड़े- अरे! यह क्या कर रही हो? जानती हो यह कौन हैं?...साक्षात् महादेव हैं|
इतना कहना था कि उगना गायब हो गया| उसका बटुआ और उसके कपड़े जमीन पर पड़े थे| विद्यापति बिलख पड़े| उनके विलाप से पूरी दुनिया रो पड़ी|
उगना रे मोर केतय गेलाह
कतय गेलाह शिव किदहुँ भेलाह
भांग ने बटुआ रुसि बैसलाहा...
उगना तो नहीं लौटा लेकिन उसके बिछोह में विद्यापति के मुँह से निकले गीत, न केवल मिथिलांचल में, अपितु देश दुनिया में गूँज रहे हैं|
-----डॉ लक्ष्मीकांत चौधरी सजल