Friday, January 16, 2015

बाबूजी
बहुत लोग जमा थे। उनमें घर परिवार के सदस्य थे नाते रिश्तेदार थे। दोस्त महीम् थे। घर आँगन में महिलाएँ तैयारिओं में व्यस्त थीं। भाग दौर कर रही थीं। बाहर पुरुष जमा थे। उनमे ज्यादातर इधर उधर खड़े थे। ऐसे भी लोग थे, जो थोड़ी थोड़ी दूर पर दो- चार की संख्या में गोल गोल घेरा बनाकर खड़े थे। आपस में बतिया रहे थे। उनके चेहरों पर न जाने कैसे कैसे भाव आ जा रहे थे। उन सभी लोगों से बाबूजी मिल भी रहे थे और बातें भी क्र रहे थे। लेकिन उनके पाँव एक जगह पर स्थिर नहीं थे। लोगों से मिलते और बातें करते करते कभी घर में आते तो कभी आँगन में। तैयारियों में व्यस्त घर परिवार की महिलाओं को निर्देश देते। कुछ कहते और फिर बाहर आ जाते। उनकी गोद में एक छोटा बच्चा भी था, जो नीचे उतरने के लिए रह रह कर मचल रहा था। उन सबके बीच मैं निर्विकार भाव से खड़ा था एक कोने में । बच्चे को गोद में लिए बाबू जी अब मेरी ओर बढे। पास आकर उन्होंने बड़े ही स्थिर भाव से कहा-' अब आप आँगन जाइए। वहां आपका इंतज़ार हो रहा है।' यह बात कानो में पड़ते ही मैंने खुद को संभाला , ताकि उनके आदेश का पालन क्र सकूँ। मैँ पीछे मुड़कर आँगन की और बढ़ा। जी कर रहा था कि फूट फूट कर रोऊँ। आँगन के दरवाजे पर खड़ी महिलाओं को देख मैं खुद को रोक नहीं पाया। लेकिन , मैं रो पाता, उसके पहले ही मेरी आँखें खुल गयीं। मैं बिस्तर पर था और नींद से जग गया था। मुखे यह समझते देर नहीं लगी कि मैं सपना देख रहा था। पर, एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि सपना में ही सही, लेकिन हों क्या रहा था। बाबूजी ने मुझे यह क्यों कहा कि आप आँगन जाइए , वहाँ आपका इंतज़ार हो रहा है? इस सवाल का जवाब तलाशनेके लिए मैंने स्वप्न की कड़ियों को एक एक कर् जोड़ने की कोशिश शुरू कर दी। जब भी किसी नतीजे पर पहुँचने को होता, तो पहुँचने के पहले ही भटक जाता। मैं काफी उद्वेलित हो उठा था यह जानने के लिए भी कि सपने में मैं फूट फूट कर क्यों रोना चाह रहा था। स्वप्न की तमाम कड़ियों को जोड़ने के बाद भी जब मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाया , तो दीवाल में टँगी बाबूजी की तस्वीर को देखा। तस्वीर में ही सही ,लेकिन उनके होठों पर मंद मंद मुस्कान थी। वही चिर परिचित अंदाज़ वाली मुस्कान। शायद , स्वप्न का अर्थ नहीं पाने की तलाश पाने की मेरी विफलता पर। और अपनी जीत की सफलता पर। यह कहानी महज़ चार दिन पहले की है। मैं अब भी स्वप्न की कड़ियों को कभी तोड़तहुँ तो कभी जोड़कर फिर तोड़ता हूँ । उसे नए सिरे से जोड़ने के लिए। उसके अर्थ की तलाश और उम्मीद में।

जैसे सबके बाबूजी होते हैं, वैसे ही मेरे बाबूजी भी थे। वे आकाशवाणी, पटना से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "चौपाल" के "मुखिया जी "थे। वे स्वाभाव से ही कलाकार थे। कवि-गीतकार थे। रेडियो की दुनिया के थे। विशेष अवसरों पर रूपकों के जरिये, गीत-संगीत फीचरों के जरिये उन्होंने रेडियो की आवाज़ की दुनिया को एक नई पहचान दी। रेडियो पर मैथिलि नाटक को बुलंदी दी। अगर आप रेडियो के उस दौर के श्रोता होंगे , तो संभव है कि आपने "चौपाल "के "मुखिया जी" के रूप में बाबूजी की कमांडिंग टोन वाली आवाज़ जरूर सुनी होगी। उनका नाम था-गौरीकांत चौधरी 'कान्त'। वे चौपाल के दूसरे मुखिया जी थे। वे साहित्यसेवी भी थे। हिन्दी साहित्य में उन्होंने आंचलिक उपन्यास के रूप में 'ताइचुंग बोल उठा' जैसी कृति दी, तो  मैथिली साहित्य को ' विश्वामित्र' (महाकाव्य), 'वंशी क्यों टेरय' एवं 'चानन' (कविता संग्रह) 'वरदान' (नाटक) तथा 'पानक पात' (कथा संग्रह) सहित तीन दर्जन से भी अधिक रेडियो नाटक प्रदान किया। 'बढ़ते कदम' और 'डेग' जैसी हिंदी कृतियों से उन्होंने निरक्षरता उन्मूलन में अपनी सहभागिता निभायी। साल 1995 में जब वे रेडियो से सेवानिवृत्त हुए , तो उन्हें अनुबंध पर चौपाल में मुखिया जी बने रहने का प्रस्ताव मिला। लेकिन,वे तैयार नहीं हुए। यह उन्हें अपने स्वाभिमान के विरूद्ध लगा। सेवानिवृत्ति के बाद बिहार सरकार ने उन्हें मैथिली अकादमी का अध्यक्ष बनाया। मैथिली अकादमी के अध्यक्ष के रूप में अपने तीन वर्षों का कार्यकाल पूरा करने के पहले ही उन्होंने इस दुनिया से विदा ले लिया। सदा के लिए।

उन्होंने 29 दिसम्बर , 2001को अंतिम सांस ली। छोड़ गए तो अपनी स्मृतियाँ , जिन्हें हम सहेजने की कोशिश में लगे हैं। संकट में भी मुस्काने वाली उनकी छवि को अपने हृदय में समेटे हुए। जब कभी वे सपनो में आते हैं ,तो लगता है, बेशुमार खुशियाँ मिल गयी हों। लेकिन ऐसा कभी कभार ही होता है। साल में एकाध बार। संयोग कैसे बनता है, यह कोशिश करने के बाद भी नहीं जान पा रहा हूँ।

सपने की ही बात है। मैंने देखा कि बाबूजी ने बहुत सारे लोगों को आमंत्रित कर रखा है। सारे लोग आ भी चुके हैं। उनमें ज्यादातर लोग उनके रेडियो के मित्र हैं । सभी  लोग पूजा में शामिल होने आये हुए हैं। पूजा संभवतः सत्यनारायण भगवन की थी। पूजा पर वे खुद बैठने वाले थे। लेकिन,बैठने के पहले उन्हें कुछ याद आ गया। उन्होंने मुझसे कहा कि आप दुकान चले जाइए। सामान ले आइये। कौन सामान लाने केलिए कहा था, यह तो याद नहीं। लेकिन, इतना जरूर याद है कि खेत की पगडंडियों पर चलकर मैं आगे बढ़ा।

अचानक कोई आवाज़ सुन मुड़ा। तो, देखा कि एक बखारी की छत उठ रही है। छत एक हाथी के मस्तक पर है। हाथी का मस्तक आभूषणों से सजा है।  हाथी का रूप मन को मोहने वाला है। उस छवि को निहारने में मैं मग्न हो गया। लेकिन पल भर में ही हाथी का मस्तक वैसे ही लुप्त हो गया जैसे वः आया था। बखारी की छत फिर से अपने स्थान पर आ गयी। मेरी नजरें वहॉं से हटती , उसके पहले ही स्वप्न  टूट  चुका था। मेरा रोम रोम  पुलकित हो उठा। रोमांच मैं इतना भर उठा कि पूछिए मत। मुझे याद आया कि कल से पितृपक्ष शुरू होने वाला है।


लक्ष्मीकांत चौधरी 'सजल' व्याख्याता

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